
यह वर्ष हिंदी फिल्म के उस सितारे का जन्मशती वर्ष है(जन्म 14 दिसंबर 1924) है , कहते हैं उनके कृतित्व का यह स्मरण पर्व भी है। उस सितारे का नाम…. उनसे ही सुनिए, मेरा नाम राजू..…आवारा हूं…… लेकिन, मेरा नाम जोकर तक जाकर भी नहीं ठहरता है। उस शैदाई सितारा का नाम था- राजकपूर ! बहुत बड़ा शो मैन!

हिंदी सिनेमा दर्शकों को असली सिनेमा देखने का असीम सुख उसी दौर में प्राप्त होता था । ‘तीसरी कसम’ के हीरामन का जीवन आम आदमी की जिंदगी छू कर मिलती थी राजकपूर एक संस्था थे। सरकस का सबसे बड़ा, ऊंचा, मोटा और मजबूत खंभा थे , जिससे सरकस के अनेक खम्भे रस्सियों से बंधे थे ऊपर तिरपाल था। तिरपाल नहीं फिल्मोद्योग का आन था, आब था ! श्री राजकपूर के अंत समय को भी देखा जब वे दादा साहब फालके पुरस्कार प्राप्त करने 1988 में सशरीर समारोह में उपस्थित हुए थे। टीवी पर लाइव देख रहा था। सांसें उखड़ रही थी। हांफ रहे थे। साथ में डॉक्टर ऑक्सीजन सभी कुछ थे । राष्ट्रपति जी उनकी व्हीलचेयर तक पहुंच कर राजकपूर जी को पुरस्कार प्राप्त कराया था। वह घटना आज के बिखर चुका सिनेमा मार्केट
को यह संदेश है कि राजकपूर चाहते तो पुरस्कार उनके घर तक पहुंच जाते । राजकपूर कुछ वर्ष और जी लेते। लेकिन, राजू। आवारा और जोकर ने अपने जीवन को प्राथमिकता न देकर फिल्म संसार का सम्मान किया, दादा साहब फालके की स्मृति को सम्मान देकर फिल्म उद्योग की तत्कालीन पीढ़ी को उत्साहित करना अधिक आवश्यक समझा। मुंबई से दिल्ली आ गए थे! …आँखें मूंदी तो फिर खुली नहीं… 2 जून 1988 को 68 वर्ष की आयु में श्री राजकपूर का निधन हो गया।

आर्थिक आधार पर उनकी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ बुरी तरह पीट गई थी। लेकिन, मेरी पूछिए तो फिल्म मुझे बेहद पसंद थी। ’संगम’ मैं दुबारा नहीं देखा । लेकिन, मेरा नाम जोकर दूसरे सप्ताह में भी जाकर देखने के लिए मजबूर था। जीवन का दर्शन बहुत निकट से उस फिल्म में मुझे होता दिखा था, बस
सादर श्रद्धांजलि !
