56 इंच का सीना शेर का “गीदड़ों के झुंड के बीच एक अकेला शेर हार जाएगा ….”

सीज़-फायर होने की खबर से मैं बहुत ग़ुस्से  

में था।

मन कर रहा था कि पाकिस्तान को अभी के अभी मिट्टी में मिला दिया जाए, उन्हें पाताल तक घुस कर मारा जाए।

लेकिन 1 दिन जब ठंडे दिमाग से सोचा कि ऐसी क्या मजबूरी होगी ? भारत की कूटनीति, भविष्य, अर्थव्यवस्था और सीमाओं पर खड़े लाखों जवानों को ध्यान में रखा, अपने दुश्मन देशों का रुख देखा तो एक अलग दृष्टिकोण भी बना।

कई लोग आज सवाल पूछ रहे हैं-जो भारत शुरुआत में फ्रंट फुट पर था, वो अचानक क्यों पीछे हट गया? जिसने मिसाइलों से जवाब देने की ताकत रखी, वो सिर्फ S-400 से दुश्मन के ड्रोन और मिसाइलें ही क्यों गिराता रहा?

दरअसल, ये 1971 वाला भारत नहीं है। ना वैसा वक़्त है, ना वैसी वैश्विक परिस्थितियाँ। तब भारत परमाणु शक्ति नहीं था, पाकिस्तान भी नहीं। तब चीन भी उतना सामरिक रूप से आक्रामक नहीं था।

तब केवल दो ध्रुव थे-अमेरिका और रूस, और रूस पूरी तरह भारत के साथ था।

अब हालात अलग हैं। जिसका शायद भारत को भान नहीं था। उसे लगा रहा, मिज़ाइल स्ट्राइक करके पहले की तरह मामला शांत हो जाएगा। चुनावों में फायदा भी भुना लेंगे। मगर पाकिस्तान के मृत शरीर में इस बार पूरी हवा भरी जा चुकी थी। तीसरे ही दिन उसके अलाई (मित्र देश) खुल कर भारत के सामने आ चुके हैं। तुर्की के ड्रोन मोर्चे पर हैं, चीन खुले समर्थन में है। बांग्लादेश की सीमा से भी हलचल है, और भारत के पूर्वी-पश्चिमी दोनों छोर सतर्क हैं।

ये लड़ाई अब सिर्फ भारत-पाक की नहीं रही, ये एक मल्टी -फ्रंट वार बन चुकी थी। भारत को शायद 4-5 मोर्चों पर युद्ध वाली परिस्थिति का भान नहीं था।

तो क्या भारत कमजोर है? बिलकुल नहीं।

भारत जानता है कि 4 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था यूँ ही युद्ध में झोंकी नहीं जाती। एक जिम्मेदार देश वही होता है जो हर चाल सोच-समझ कर चलता है।

शेर जब पीछे हटता है, तो लंबी छलांग के लिए ही हटता है।

आज गीदड़ों के सामने भारत अकेला खड़ा है-

अमेरिका न्यूट्रल है,(वो भारत का परम्परागत शत्रु है) IMF के रूप में वो पाकिस्तान को युद्ध-सहायता दे चुका है। मित्र इज़राइल अपनी लड़ाई में उलझा है,

और हमारा पुराना साथी रूस भी अपने मोर्चों में फंसा हुआ है।

ऐसे में ज़रूरत है-

अपनी कूटनीति को मजबूत करने की, सैन्य शक्ति को और धार देने की । और सबसे ज़रूरी—अपने नए भरोसेमंद साथी तैयार करने की। अब न्यूट्रल रहने का समय नहीं है। अब वक्त है ठंडे दिमाग से सोचने का।

अब वक्त है रणनीति से खेलने का। क्योंकि जो देश सब्र से चलते हैं, वही इतिहास रचते हैं।

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