वे स्त्रियाँ
अब चीरहरण नहीं चाहतीं,
ना सभा की नपुंसक दृष्टि,
ना कृष्ण का चमत्कारी वस्त्र-प्रदर्शन।
वे अब प्रश्न नहीं करतीं —
“सभागृह में धर्म कहाँ है?”
वे खुद ही धर्म बन चुकी हैं।
वे स्त्रियाँ
न तो द्रौपदी हैं,
ना सीता,
ना कुंती,
वे अपना नाम खुद रखती हैं —
कभी विद्रोह,
कभी प्रेम,
कभी ‘ना’।
वे अब अग्निपरीक्षा नहीं देतीं,
क्योंकि वे जान चुकी हैं —
आग से नहीं,
सवालों से जलाया जाता है।
वे अब चौखट पर दीपक नहीं जलातीं
बल्कि आंधियों से पूछती हैं —
“तुम्हारा साहस कितना है, मुझे बुझाने का?”
वे स्त्रियाँ
अपने भीतर

एक कोमल क्रांति पालती हैं —
जो फूलों से नहीं,
संवेदना की चुप्पियों से खिलती है।
वे अब खुद को
‘स्त्री’ कहने से पहले
‘मनुष्य’ कहती हैं —
क्योंकि उन्हें अब
देह से पहले
चेतना चाहिए।
—
— प्रियंका सौरभ
2. कविता और औरत: चूल्हे से चाँद तक की यात्रा
— उसकी उड़ान, उसकी जुबान
—
न रच सकी इतिहास में जितनी लड़ाइयाँ,
उतनी लड़ी है वह — खामोश, मगर पूरी ताक़त से।
न झंडा था, न बाजा —
फिर भी हर दिन उसका ‘स्वतंत्रता संग्राम’ था।
—
वह चूल्हे की आँच में जली,
तो कविता बनी।
उसके हाथ की रोटियाँ नहीं,
उसकी आँखों की राख में क्रांति पलती रही।
—
जब उसने परात में आटा गूंधा,
तो उसी में उसने सपने गूंथे।
जब उसने बर्तन मांजे —
हर घर्षण में स्वर निकलते गए —
गीत नहीं, घोषणाएँ थीं वे।
—
घर की देहरी नहीं थी उसकी सीमा,
बल्कि वहीं से शुरू हुआ उसका अंतरिक्ष।
एक दिन वही औरत
इंसान के पहले कदम के साथ
चाँद पर उतर गई —
क्योंकि सपनों की कोई ज़द नहीं होती।
—
जिसे समझा गया अबला,
वही शक्ति की सबसे परिपक्व परिभाषा निकली।
वह सीता थी, पर अग्निपरीक्षा को धिक्कारा,
वह दुर्गा बनी — और दस दिशाओं को ललकारा।
—
कविता जब औरत से मिली,
तो शब्द नहीं, शस्त्र बन गए।
‘ना’ उसका सबसे बड़ा मंत्र बना,
‘मैं’ उसकी सबसे बड़ी विजय।
—
वह रसोई में बंद थी,
पर मन का आकाश नापा करती थी।
दुपट्टे के कोने से
दर्द पोंछती रही —
पर हर आँसू, स्याही में बदल गया।
—
एक दिन वह अदालत में खड़ी मिली —
अपनी चुप्पियों की गवाही देती हुई।
दूसरे दिन समाचारों में छपी —
किसी CEO, किसी वैज्ञानिक के रूप में।
वह नहीं बदली,
समाज ने पहली बार उसकी उड़ान को देखा।
—
वह माँ थी, बहन थी, पत्नी थी —
पर सबसे पहले मनुष्य थी।
कविता ने जब यह पहचाना,
तब लिखी गई स्त्री की पहली मुकम्मल कहानी।
—
कभी उसे चुड़ैल कहा गया,
कभी देवी —
पर किसी ने इंसान नहीं कहा!
कविता वही गलती सुधारने आई है —
स्त्री को एक नाम नहीं, पहचान देने।
—
क्योंकि वो सिर्फ़ रक्त से नहीं,
संवेदना से गढ़ी जाती है।
वो कोख से नहीं,
कर्म से जन्मती है।
—
वो मंदिर की घंटी नहीं,
जो जब चाहे बजा दी जाए।
वो युद्ध की रणभेरी है —
जो चेतना में गूंजे,
तो पूरी व्यवस्था हिल जाए।
—
अब वह सिर्फ़ ‘कविता की प्रेरणा’ नहीं,
बल्कि कविता स्वयं है।
उसकी चाल में छंद है,
उसकी हँसी में लय,
उसके प्रतिरोध में पूर्ण महाकाव्य छिपा है।
—
चूल्हे की राख से निकल कर,
जब उसने चाँद को छू लिया —
तो यह केवल विज्ञान की नहीं,
स्त्री की आत्मा की विजय थी।
—
अब वह किसी के नाम की चिरैया नहीं,
बल्कि अपने सपनों की बाज़ है।
कविता और औरत —
अब न पढ़ी जाएँ —
बल्कि सुनी जाएँ,
समझी जाएँ,
और जी जाएँ।
—
– प्रियंका सौरभ
स्त्री की आत्मा से निकली कविता।
3. कविता और औरत: घूँघट से गूँज तक”
(एक स्त्री की आत्मा से निकली आग)
—
मैं औरत हूँ — पर केवल देह नहीं,
मैं कविता हूँ — पर केवल लेख नहीं।
मुझमें माँ की ममता है, पर शेरनी की धार भी,
मैं झरनों सी शांत हूँ, पर ज्वालामुखी की पुकार भी।
—
घूँघट की ओट से जो आवाज़ उठी थी कभी,
वही आज मंचों से न्याय का घोष कर रही है अभी।
जिसे सदी दर सदी दबाया गया “मर्यादा” कहकर,
वो अब संविधान के पन्नों पर अधिकार लिख रही है दम भर।
—
मैंने देखा है वो वक़्त, जब शिक्षा एक सपना थी,
जब बेटियाँ बोझ थीं, और आँसू ही अपनी संपदा थी।
पर आज मेरी कलम में जो धार है,
वो हर दहेज की मांग पर प्रहार है।
—
तूने समझा मुझे कमज़ोर, नाज़ुक और भावुक,
पर भूल गया कि यही कोमलता कभी ज्वालामुखी बन उठेगी अचूक।
मैं चूल्हे की आँच थी, अब चाँद पर खोज की चमक हूँ,
मैं ‘कन्यादान’ नहीं, अब संविधान की शपथ हूँ।
—
मैं कविता में नहीं, मैं क्रिया में बोलती हूँ,
जब बेटियाँ ट्रैक्टर चलाती हैं, तब खेतों में क्रांति खोलती हूँ।
जब किसी बलात्कार पीड़िता की आँखें न्याय की प्यास हों,
तब मेरी एक पंक्ति भी संसद की नींद तोड़ दे, यही मेरी आस हो।
—
तू अगर रीतियों का रक्षक है,
तो मैं बदलाव की आदिम भूख।
तू अगर परंपरा की दीवार है,
तो मैं उस पर उगता हुआ प्रश्नसूत्र।
—
तू घूँघट से शुरू करता है मेरी परिभाषा,
मैं सवालों से खोलती हूँ तेरा हर झूठा मुखौटा।
मैंने अपने आँचल को अब आँसुओं से नहीं,
तलवार की धार से सी दिया है कहीं।
—
मेरी सिसकियों को तुमने सदियों तक ‘शालीनता’ समझा,
अब मेरी गूँज से अंबर काँपेगा, यही है संकल्प हमारा।
मैं वो औरत हूँ, जो अब तुम्हारे “सहनशीलता” के व्याख्यान नहीं सुनती,
मैं अब बोलती हूँ, लिखती हूँ, लड़ती हूँ — और जीतती भी हूँ।
—
मेरे पैरों की पायल अब शृंगार नहीं,
हर क़दम की आवाज़ है — क्रांति की तर्जनी।
मैं अब देवी नहीं, इंसान हूँ —
और मेरी कविता मेरा संविधान है।
—
– प्रियंका सौरभ
4. “वो स्त्रियाँ सौभाग्यशाली थीं…”
वो स्त्रियाँ सच में सौभाग्यशाली रहीं हैं,
जिनके हिस्से में पुरुषों का सच्चा प्रेम आया है…
न केवल फूलों सा मुस्कुराता,
बल्कि काँटों के दिनों में भी साथ निभाता।
जो सिर्फ़ रूप नहीं,
रूदन भी समझ सका।
जो थकी हुई हथेलियों पर
अपने अधरों से सुकून रख सका।
जिसने चूड़ियों की खनक में
कभी सपनों की टूटन भी सुनी,
और ओढ़नी के रंगों में
उसकी आज़ादी की बुनावट जानी।
वो पुरुष जो प्रेम में पूजा नहीं,
पर बराबरी का स्पर्श दे सका,
जो स्त्री को ‘कम’ नहीं,
‘कभी’ नहीं कह सका।
हाँ, वो स्त्रियाँ सच में भाग्यशाली रहीं,
जिन्हें प्रेम में परछाईं नहीं,
पूरा अस्तित्व मिला।
जो सिर्फ़ पत्नी, माँ, या बहन नहीं,
एक ‘व्यक्ति’ की तरह जिया गया।
— प्रियंका सौरभ
5. तुम शकुनि नहीं, पर बनते क्यों हो?
तुम शकुनि नहीं, पर बनते हो,
चलाते हो चालें, छुपते हो परछाइयों में।
अपने मन के युद्ध को समझो,
आत्मनिरीक्षण की सबसे कठिन यात्रा है,
जहाँ हर कदम सवाल बन जाता है।
तुम्हारे भीतर की महाभारत,
अभी भी अधूरी है, जारी है।
जागो उस भीतर के युद्ध से,
और अपने साये को स्वीकारो।
क्योंकि यह लड़ाई अंतर्मन की है,
और इसे जीतना ही जीवन है।
तुम शकुनि नहीं,
पर बनते क्यों हो?
खुद को देखो,
और सच से मत भागो।
— प्रियंका सौरभ
6. द्रोणाचार्य की वर्ग नीति
ज्ञान बाँटना मेरा कर्म था,
पर न्याय कहीं खो गया।
पक्षपात की तलवार बनी मेरी नीति,
मैं वह शिक्षक था,
जो अपना कर्तव्य भूल गया।
ज्ञान मेरा धर्म था,
पर वर्ग नीति ने उसे बंदी बना लिया।
न्याय के बंधनों में उलझकर,
मैं खुद एक कैदी बन गया।
मेरी शिक्षा ने दी ठोकरें,
और मैंने रिश्ता तोड़ा।
क्या ज्ञान सही मायने में ज्ञान था?
या केवल सत्ता का हथियार?
यह प्रश्न मन में घुल गया,
और चुप्पी छा गई।
— प्रियंका सौरभ
7. भीष्म की प्रतिज्ञा
मैंने सब कुछ छोड़ दिया,
अपने प्रेम को त्याग दिया।
अपने कर्तव्य को चुना,
और जीवन को प्रतिज्ञा बना लिया।
पर क्या त्याग प्रेम की मृत्यु है?
क्या बलिदान से दिल मर जाता है?
मैं वह भीष्म हूँ,
जो धर्म से बँधा है, पर अकेला है।
मेरी प्रतिज्ञा, मेरी शक्ति,
पर मेरी एक अधूरी कहानी भी है।
मन में छुपा दर्द कोई नहीं जानता,
पर मैं मजबूर था इस पथ पर चलने को।
यह त्याग मेरा धर्म था,
पर यह प्रेम की हत्या भी थी।
मैं वह पुरुष,
जो अपनी मर्जी से दूर हो गया।
— प्रियंका सौरभ
8. कृष्ण की चुप सलाहें
मेरे शब्द कम, पर अर्थ गहरा था,
मेरी चुप्पी में भी प्यार झलकता था।
मैं वह साथी, जो समझता था सब कुछ,
मेरी सलाहें कभी तीखी, कभी मधुर थीं,
पर उनमें प्रेम की गहराई थी।
मैं था वह सहारा, जो खामोशी में छुपा,
और बुद्धिमत्ता से सबको राह दिखाता।
साथी तो थे, पर समझ की दूरी थी,
जो दिलों को जोड़ न सकी।
क्या प्रेम केवल कहने की बात है?
या चुप रहकर भी निभाने का हुनर?
मेरी चुप्पी की वह भाषा,
जो कोई न समझ पाया।
कभी वह दोस्ती,
कभी वह अकेलापन था।
— प्रियंका सौरभ
9. अर्जुन घर लौट आया है
धनुष को छोड़कर, तीरों को तोड़कर,
मैं घर लौटा, पर वह घर मेरा नहीं रहा।
जहाँ लड़ाई के शोर की जगह सन्नाटा था,
और रिश्तों की आवाज़ें खामोशी में डूब गई थीं।
बाहर की लड़ाई खत्म हुई,
पर भीतर का युद्ध और भी कठोर था।
यादें चुभतीं, मन टूटता,
और अकेलापन भी घातक था।
मैं वह अर्जुन हूँ, जो अब अपने घर में भी अकेला है,
जहाँ कोई सहारा नहीं, सिर्फ ख़ामोशी है।
घर की दीवारें मुझे घेरती हैं,
और मेरा मन टूटता जाता है।
यह घर नहीं, एक वीरान रणभूमि है,
जहाँ मैं खुद से लड़ रहा हूँ,
और अपनी ही सोच में खोया हूँ।
— प्रियंका सौरभ
10. कभी घर भी युद्धभूमि होता है
चार दीवारों के बीच,
जहाँ कभी हम पनाह माँगते थे,
अब वही घर बन गया है एक रणभूमि,
जहाँ प्रेम और अपमान की लड़ाई होती है।
माँ की ममता कभी ढाल नहीं बन पाई,
और पिता की कठोरता छुपा नहीं सकी।
वो बातें जो प्यार की होती थीं,
अब डांट और कटुता बन गईं।
घर में सन्नाटा छा गया है,
जहाँ दिल टूटते हैं, सपने मरते हैं।
हर दिन एक नई लड़ाई है,
जहाँ जख्म गहरे होते जाते हैं।
यह घर नहीं, एक कैदखाना है,
जहाँ उम्मीदें दम तोड़ती हैं,
और रिश्ते छूटते जाते हैं।
यहाँ प्रेम भी कभी-कभी एक हथियार बन जाता है,
जो सबसे करीबी दिलों को भी चोट पहुँचाता है।
— प्रियंका सौरभ
11. चुप्पियों के चक्रव्यूह
घर में शब्द नहीं,
पर दीवारों की सांसों में
काँपते हैं संवाद,
और सुने नहीं जा सके।
कभी रोटी की गोलाई में
सिमट जाती है स्त्री की पूर्णिमा,
पर चूल्हे की आँच में
हर दिन कुछ जलता है —
वो रोटी नहीं होती,
वो स्वाभिमान होता है।
वो कहती है –
“सब ठीक है”,
जैसे अर्जुन कहता था —
“मैं युद्ध नहीं करूँगा”,
पर भीतर
कृष्ण कोई बोलता रहता है,
जो पूछता है —
“क्या यह चुप्पी भी अधर्म नहीं?”
चुप्पियाँ तटस्थ नहीं होतीं,
ये अक्सर
दुर्योधन की रणनीति से
कहीं अधिक ख़तरनाक होती हैं।
क्योंकि
इनमें कोई शकुनी छुपा होता है,
जो घर के महाभारत का
नक्शा खींचता है।
कभी चुप रहने वाली स्त्रियाँ,
एक दिन
पाँव के नीचे
धरा की थरथराहट बन जाती हैं,
और तब
पुरुष पूछते हैं —
“ये तूफान कहाँ से आया?”
उन्हें कौन बताए —
ये वही है,
जो बरसों
सिर्फ बर्तन धोते हुए
अपना मुँह भी धोती रही थी।
—
— प्रियंका सौरभ
12. “शकुनी की परछाइयाँ”
घर की दीवारें कभी चीखती नहीं,
वे केवल चुपचाप सुनती हैं —
हर ताना, हर उभरी हुई आँख,
हर वह आवाज़ जो रिश्तों को सिलवटों में बदल देती है।
कभी-कभी
बिना युद्ध के
एक महाभारत उठ खड़ी होती है —
जहाँ अर्जुन, कृष्ण और भीष्म
सब अपने-अपने कर्तव्य में उलझे
बस एक जाल में फँस जाते हैं।
पर कोई नहीं देखता
वह दृष्टि जिसकी उँगलियों में
शतरंज की गंध होती है —
जो प्रेम को अविश्वास में गूंथ देता है,
और आत्मीयता को संशय की राख से रंग देता है।
यदि तुम्हारे आँगन में भी
बेवजह रणभेरी बजती है,
तो एक क्षण ठहरो…
उस कर्तव्य की नहीं,
उस चाल की पहचान करो
जो पीछे से बिसात बिछाती है।
महाभारत मत बनो,
ना कुरुक्षेत्र के योद्धा —
पहचानो उसे
जो घर के भीतर बैठा है
पर छाया की तरह दिशा बदलता है।
कभी वह तुम्हारी चिंता में बोलता है,
कभी किसी के दुःख में आंसू लाता है,
पर उसकी आँखों में
कोई आकाश नहीं होता —
केवल लाभ का गणित होता है।
शांति की खोज में
पहले शकुनियों को बेनकाब करो,
फिर देखना —
रिश्तों के जलते हुए वन में
कैसे फूटती है एक हरियाली की किरण।
— प्रियंका सौरभ