रिश्तों का बोझ! -ज्ञानचंद मेहता 

मानवीय संबंधों में ऐसा होना नहीं चाहिए कि रिश्ते बोझ हो जाय। परन्तु, आजकल बे झिझक रिश्ते टूटते देखता हूं। और , यह  अस्वभाविक  भी नहीं है। रेडिमेड जो रिश्ते बनते है, उसका ओर हश्र हो भी क्या सकता है। स्कूली  जीवन से स्मरण करता हूं तो बहुत सारे मित्र थे। मिले बगैर चैन नहीं  था। आज उनमें से तीन मेरे संपर्क में है। यह एक अच्छी बात है। एक, लाला विजय किशोर प्रसाद, सुरेन्द्र सिंह और तीसरा  सुरेश प्रसाद ! इसी तरह कॉलेज  के दिनों के मित्र थे, बड़े गहरे मित्र थे।

             विवाह हुआ। रिश्तों की परमिति बढ़ गई। पत्नी वहां होती तो वहां जाने के आवृति बढ़ जाती। ससुराल गए बिना चैन न था। वक्त बिता , संबंध धुंधला हो गया । वर्षों गुजर गया, ससुराल नहीं गया हूं। और, एक वे दिन थे !

       पुष्ट  संबंध या रिश्ते की प्रगाढ़ता का आधार संपर्क है ! मैं कभी विचार भी नहीं किया था के मेरे गृह नगर नवादा, मेरा घर मिर्जापुर, मेरे हरे – भरे खेत,  फसल से भरा खलिहान… नेवारी का पुंज, कभी गेहूं के बोझे, अरहर, सरसों….. कितना प्रेम था ! कितना प्यार था !  नवादा का राजकीय पुस्तकालय, सिनेमा हॉल.. सभी बहुत प्यारे थे, बहुत- बहुत ! नवादा का दशहरा, होली…छूटे नहीं छूटते थे। लेकिन, अभी सभी छूट गए। संपर्क टूट गए। परिस्थितियां बदल गई ! अब वहां होली में जाकर रहूं तो जी न लगे।

      मेरी स्पष्ट धारणा है, रिश्ते का बोझ , संपर्क के ठोस स्तंभ पर टीके होते हैं। संपर्क में कटुता, अनियमितता आए  नहीं कि  रिश्ते बोझ होने लगते है।

    2006 में गृहप्रवेश कर शिवपुरी , हजारीबाग , झारखंड में बस गया। कई नए – नए संबंध बने, प्रेम बढ़े। टूटे भी । जिन दिनों मैं रिटायर हुआ था, लगभग उन्हीं दिनों  उच्च विद्यालय के  एक शिक्षक  सेवा निवृत हुए थे। कई वर्षों तक वे नियमित  मेरे शाखा से आने के बाद मेरे घर आते, साथ में चाय पीते अखबार पढ़ते आनंद आता। वे जब कभी नहीं आते तो चिंता बन जाती थी। पंडित जी कहां गए? कहां गए होंगे ? उन्हें कभी RSS के विशेष कार्यक्रम में भी साथ ले जाता। कुछ साल बाद फिर वह रिश्ता न जाने कब और कैसे फीका पड़ गया। अब तो पंडित जी से भेंट भी नहीं होती है। 

     होता है, बचपन के साथी छोटे-छोटे बच्चे, स्कूल के सहपाठी। कॉलेज के मित्र। फिर, पत्नी!

 1970 से लगभग 20 साल तक एक बढ़िया दोस्त के साथ समय गुजरा। हम दोनों ने बड़े इंजॉय किए थे। नाम  था, बाबू लाल जी ! बड़ी गहरी छनी । अद्भुत रिश्ता था। मगर, एक खोट के कारण  उस रिश्ते ने भी मुंह मोड़ लिया! वह दोष न उनकी ओर से था ना मेरी ओर से था।

 भौतिकवाद की जरूरत है,  समय और धन। और , मित्रता के आगे धन का कोई मोल नहीं है। समय का भी कोई टोटा नहीं होना चाहिए। मित्रता को महत्व दे लो, या धन और समय को महत्व दो। और, तीसरा बड़ा फैक्टर है सम्मान!

      मेरे सामने मेरे मित्र के विषय में कोई अशालीन भाषा का प्रयोग करदे और मैं प्रतिकार न करूं, तो यह मित्रता नहीं हुई।

    सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते के बिना मानवीय जीवन सुखी रेत है !

नीचे चित्र में मेरे साथ मेरे दो मित्र हैं।

बाएं से लाला विजय किशोर प्रसाद , मैं और दाहिनी ओर मिथिलेश सिंह ,गया।

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