“कम उम्र का गुस्सा, समाज का आईना: जब बच्चे चाकू उठाने लगे” – प्रियंका सौरभ

स्कूली छात्रों द्वारा चाकू से हमले की घटनाएं बता रही हैं कि बच्चों की मासूमियत में अब गुस्सा, हिंसा और असहायता छिपी है। सोशल मीडिया, संवादहीन पालन-पोषण, और ग्लैमराइज हिंसा ने किशोरों को चुप नहीं रहने दिया — वे अब चिल्ला रहे हैं, हथियार उठा रहे हैं। यह केवल कानून का नहीं, समाज के हर सदस्य का असफलता-पत्र है। बच्चों को सुधारने के लिए पहले खुद को सुधारना होगा। संवाद, समझ और सहानुभूति ही रास्ता है, वरना अगली बार अफसोस भी देर से आएगा।

— प्रियंका सौरभ

“थोड़ा बड़ा हो जा, फिर बात करेंगे!”

“बच्चा है, समझ जाएगा!”

हमने अक्सर बच्चों को लेकर ऐसी ही बातें कही और सुनी हैं। लेकिन आज समाज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ “बच्चा” शब्द अब मासूमियत का प्रतीक नहीं रहा। हिसार जैसे अपेक्षाकृत शांत इलाके में स्कूली छात्रों द्वारा चाकू निकालना, शिक्षकों पर हमला करना और मामूली बातों पर हिंसक हो जाना इस बात का संकेत है कि हमारा सामाजिक तानाबाना अंदर ही अंदर सड़ रहा है। सवाल ये नहीं है कि बच्चों के हाथ में चाकू कैसे आया, सवाल यह है कि उनके दिल में नफरत, हिंसा और आक्रोश क्यों आया?

किशोर अपराधों की बढ़ती घटनाएँ: एक चिंताजनक परिदृश्य

हिसार जिले में केवल एक महीने में छात्रों के बीच 5–6 चाकूबाजी की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। इनमें फतेह नगर, तलवंडी राणा, गंगवा, जाखोबपुरा जैसे ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाके शामिल हैं। कुछ मामलों में दोस्ती के विवाद, फोन पर बातचीत, सोशल मीडिया पर कमेंट जैसी छोटी बातों ने इतना बड़ा रूप ले लिया कि एक छात्र ने शिक्षक पर ही चाकू से हमला कर दिया।

यह घटनाएँ अकेले हिसार तक सीमित नहीं हैं। देशभर में किशोर अपराधों का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है — कभी प्यार के नाम पर, कभी मोबाइल गेम्स की लत में, और कभी “स्टाइल” या “रुतबे” की झूठी दुनिया में डूबकर।

बच्चों का हिंसा की ओर झुकाव क्यों?

आज के किशोर सोशल मीडिया पर “रिल्स”, “चैलेंज” और “स्टेटस” के नाम पर ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहाँ हिंसा, स्टंट और आक्रोश को “कूल” समझा जाता है। छोटे-छोटे झगड़े अब वर्चस्व की लड़ाई बन जाते हैं, क्योंकि उन्हें दिखाना होता है — “मैं किसी से कम नहीं।” अभिभावक व्यस्त हैं — कुछ ज़रूरतों में, कुछ महत्वाकांक्षा में। बच्चों को समय, संवाद और भावनात्मक सहयोग नहीं मिल रहा। वे गूगल से सवाल पूछना सीख रहे हैं, लेकिन घर में सवाल पूछना भूल रहे हैं। सरकारी स्कूल संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं और निजी स्कूलों में अंधी प्रतिस्पर्धा ने बच्चों को “सफलता मशीन” बना दिया है। उनके मन की बेचैनी का कोई समाधान नहीं, कोई प्लेटफॉर्म नहीं। “गैंगस्टर”, “बॉस”, “डॉन”, “विलेन” जैसे किरदारों को ग्लैमराइज किया जाता है। किशोर उनकी नकल करते हैं, सोचते हैं कि डर पैदा करना ही ताकत है

हिंसा का मनोविज्ञान: जब बच्चा चुप नहीं होता, चीखने लगता है

बच्चा जब भावनात्मक रूप से अकेला होता है, तो उसका मन सबसे पहले प्रतिक्रिया करता है — या तो वह चुप हो जाएगा, या हिंसक हो जाएगा। वह जब खुद को असहाय महसूस करता है, तब उसे लगता है कि डराना ही सुरक्षा है। धीरे-धीरे यह आदत बन जाती है। हिंसा सिर्फ शरीर से नहीं होती, वह पहले विचारों में जन्म लेती है।

समाज की भूमिका: हम सब दोषी हैं

✔ पड़ोसी चुप हैं, स्कूल निरीक्षक अनुपस्थित हैं, और मीडिया सनसनीखेज है। हमने बच्चों के भीतर की आवाजें नहीं सुनीं। हमने उस छात्र की आँखों में छिपा गुस्सा नहीं पढ़ा, जो आखिरकार शिक्षक पर चाकू लेकर चढ़ गया। ✔ हमने “बच्चा है, कर लेगा” कहकर जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ा। किशोर अपराध एक सामाजिक बीमारी है, जिसका इलाज केवल कानून से नहीं, बल्कि सामाजिक जागरूकता, संवेदना और सामूहिक प्रयास से संभव है।

समाधान की राह: रोकथाम, पुनर्वास और संवा

बच्चों के साथ हर दिन कम से कम 30 मिनट बिताएं, बिना फोन के। उनकी बातें सुने, आदेश न दें, संवाद करें। हिंसक गेम्स, असामान्य व्यवहार और गुस्से पर नजर रखें।

स्कूलों में नियमित काउंसलिंग सत्र हों। मानसिक स्वास्थ्य को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं। अनुशासन के नाम पर दंड नहीं, संवाद हो। किशोर अपराधियों के लिए सुधार गृह होने चाहिए, न कि जेल जैसी जगहें। स्कूल-कॉलेजों के आसपास पुलिस की सक्रियता बढ़े। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर निगरानी के लिए अलग सेल बनें। अपराधों को रोमांचक ढंग से दिखाना बंद हो।

किशोरों के मुद्दों पर विचारोत्तेजक कार्यक्रम बनें।

कम उम्र में अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति हमारे समाज की सामूहिक असफलता को दर्शाती है। जब बच्चे चाकू उठाते हैं, तो यह केवल उनके नहीं, हमारे पूरे सामाजिक तंत्र — परिवार, स्कूल, और मीडिया — की विफलता होती है। उन्हें दोष देने से पहले हमें यह सोचना होगा कि हमने उन्हें कैसा वातावरण दिया। समाधान सज़ा में नहीं, समझ, संवाद और सही मार्गदर्शन में है। अगर आज हमने बच्चों की भावनात्मक ज़रूरतों को नहीं पहचाना, तो कल का समाज और अधिक असुरक्षित होगा। अब भी समय है – बच्चों को सुनें, समझें और समय दें।

बच्चे हमारे समाज का आईना होते हैं। अगर आज वे चाकू उठा रहे हैं तो इसका मतलब है कि हमने उन्हें ऐसा करने का कारण दिया है — अनदेखी, संवादहीनता, और संवेदनहीनता के ज़रिए। यह समय है कि हम इस आईने में झाँकें और खुद से सवाल करें: हमने अपने बच्चों को कैसा समाज दिया है?

हम उनके गुस्से को समझने की कोशिश कर रहे हैं या बस सज़ा देने की सोच रहे हैं?

यदि हमें एक सुरक्षित, संवेदनशील और हिंसारहित समाज बनाना है, तो हमें अपने बच्चों से संवाद करना होगा — आज, अभी, इसी पल। वरना अगली बार जब चाकू चलेगा, तब शायद हम केवल “अफसोस” ही कर पाएंगे।

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