
रोजा इफ़्तार मुसलमानों के निजी मज़हब का व्यवहार है। यह अच्छा है, पवित्र है । 80 के दशक में जगन्नाथ मिश्र तथा उसके बाद जुड़े लालू जी, नीतीश जी और स्व . मुलायम यादव की पार्टियां इफ्तार के आयोजन करने में होड़ लेने लगे हैं। मुसलमान बंधुओं को तब भी आनंद आता होगा, आज भी आनंद आता है। उन्होंने कभी यह क्यों नहीं समझा कि ये इफ्तार देने वाली पार्टियां उनके थोक वोट के लालची गाहक( ग्राहक) हैं ? इफ्तार की राजनीति ने मुसलमान के स्थापित छवि को विद्रूप किया है। इससे मुस्लिम भाइयों को जो आनंद हुआ, उस आनंद की फसल से यूपी और बिहार लहलहा जरूर गया था! उस लहलाहट से एक तीव्र विचारधारा तेजी से यूपी और बिहार के सामान्य समाज में गया। जो बेखबर थे उनको जगाया। जो, उत्साह से ताजिया उठाते थे, उनके पांव थम गए ! जनसंघ जिसे बजरुआ ( व्यापारी, वाणिज्य) पार्टी कहा जाता था, वह गांव तक पसर गया! गांव में जहां हिंदू मुसलमान साथ – साथ रहते थे। देहाती खान – पान, भाषा सभी एक से थे। वहां तबलीग जमात पहुंचकर हिंदुओं को जागने का रहा-सहा काम पूरा कर दिया। तबलीग जमात मुसलमानों को बदलने लगा था। रोजा, नमाज..अन्य त्योहारों के तेवर बदलने लगे। मुस्लिम महिलाएं साड़ियां, सिंदूर आदि छोड़ कर लड़कियों से लेकर दादी तक गलियों में भी निकलता हिज़ाब लेकर। इस बदलाव को, पड़ोस में बाहरी आदमी के आमद को, उनके खुसुर – फुसुर को पड़ोसी हिंदुओं ने अपने संज्ञान में लिया। और, नब्बे के दशक के अंत-अंत तक भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने केंद्र में इफ्तार पार्टी वाले सभी राजनैतिक दलों को परास्त कर अपनी सरकार बना ली। और, आज स्थिति यह कि इफ्तार देने के होड़ के इस जमाने में ही एक राजनैतिक दल इफ्तार पार्टी से अलग इंसाफ की तराजू से उनकी जेसीबी की मशीनें बुलडोजरी संस्कृति को परिष्कृत करती दिख रही है।
