ज्ञानचंद मेहता

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता
मगर इन एहतियातों से तअ’ल्लुक़ मर नहीं जाता
बुरे अच्छे हों जैसे भी हों सब रिश्ते यहीं के हैं
किसी को साथ दुनिया से कोई ले कर नहीं जाता।
फिर भी चाहिए था कभी वे मनाते मुझे,
कभी मैं मना लेता, महज एक मनुहार की जरूरत थी!